Saturday, December 9, 2023
No menu items!
Google search engine
Homeसंपादकीयश्रीलंका की झांकी में भारत

श्रीलंका की झांकी में भारत

हरिशंकर व्यास
भारत को श्रीलंका की दशा में अपनी झांकी देखनी चाहिए। सोचें, यदि भारत की दशा श्रीलंका जैसी हुई तो भारत की मदद के लिए कौन होगा? क्या दुनिया वैसे ही भारत से दूरी बनाए हुए नहीं होगी, जैसे श्रीलंका से बनाए हुए है? फिर भारत का संकट कितने आयाम लिए हुए होगा? भारत का संकट अकेले आर्थिकी का नहीं होना है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक भी होगा। भारत की आबादी और आकार के आगे श्रीलंका कुछ नहीं है। भारत की आयातों और आवश्यकताओं की भूख विशाल है तो साथ में उसके चीन और पाकिस्तान से पंगे हैं, हिंदू-मुस्लिम, खालिस्तानी, संघीय व्यवस्थाओं के इतने तनाव हैं कि उस सबमें दुनिया के कौन से देश भारत की चिंता करते हुए होंगे? क्या अमेरिका, ब्रिटेन या रूस और चीन या

जापान?
कटु सत्य है कि पूरी दुनिया ने दक्षिण एशिया की अनदेखी की हुई है। अफगानिस्तान महीनों से भुखमरी व भूकंप जैसी आपदाओं के बावजूद अछूत है। बांग्लादेश हाल में बाढ़ में डूबा हुआ था लेकिन वैश्विक मदद और चिंता नहीं के बराबर। ऐसे ही म्यांमार, पाकिस्तान, नेपाल जैसे देशों से भी दुनिया के अमीर-विकसित देशों की नजरें फिरी हुई हैं। चीन ने जिस तरह श्रीलंका को रामभरोसे छोड़ा है उससे साफ है कि वह अब भूराजनीतिक सरोकारों में भी दक्षिण एशिया की परवाह करता हुआ नहीं हैं। उसे तनिक भी यह चिंता नहीं हुई कि श्रीलंका पर शिकंजे के बाद यदि वह दिवालिया हुआ है तो उसकी मदद कर अपनी बदनामी रोके। चीन ने साबित किया है कि वह पहले साहूकार देश है। उसकी महाशक्ति की ताकत सौ टका आर्थिक हितों के लिए है। उससे भाईचारे, मानवीय संकट में मदद और मित्र देश के उदार व्यवहार की उम्मीद नहीं करें।

श्रीलंका की गोटबाया राजपक्षे सरकार ने बहुत हाथ-पांव मारे। राष्ट्रीय सम्मान और सुरक्षा को ताक में रख कर हर संभव वह कोशिश की, जिससे दुनिया के देश मदद के लिए आगे आएं। लेकिन अमेरिका और पश्चिमी देशों के कारण वैश्विक संस्थाओं ने रहम नहीं दिखाई तो चीन तथा रूस बात करते रहे लेकिन मदद नहीं मिली। जापान तक ने कन्नी काटी। क्यों? राष्ट्रपति राजपक्षे और उनकी पार्टी की मूर्खताओं के कारण। अपनी सनक में आर्थिक और विदेश नीति के ऐसे फैसले लिए, जिससे सभी देशों का मन उचट गया। एक वक्त था जब पश्चिमी देशों में, जापान में, आसियान देशों में बौद्ध देश श्रीलंका के प्रति लगाव था। उसकी बेइंतहां पर्यटन कमाई थी। ध्यान रहे भारत सहित सभी दक्षिण एसियाई देशों से बेहतर श्रीलंकाई लोगों का जीवन स्तर था। लोग खुशहाल और अच्छे वक्त में जीते हुए थे। सिंहली बनाम तमिल के अंदरूनी गृहयुद्ध के खत्म होने के बाद श्रीलंका में अमन-चैन बना तो विदेशी निवेश भी बढ़ा। लेकिन चीन की गोद में बैठते ही दुनिया श्रीलंका से बिदक गई। राजपक्षे परिवार के राष्ट्रवादी और अहंकारी व्यवहार से देश के भीतर राजनीति बिखरी तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी श्रीलंका हाशिए में चला गया। सोचें, मौजूदा सकंट में भी राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मदद मांगी। न उनसे मदद मिली और न चीन से। पश्चिमी देश तो खैर आगे आने ही नहीं थे।

तभी श्रीलंका की झांकी में भारत के भविष्य के भी कई अर्थ हैं। भारत में विदेशी मुद्रा कोष, डॉलर का रिजर्व घटता हुआ है। डॉलर के मुकाबले रुपया सस्ता हो रहा है। जल्दी ही एक डॉलर 80 रुपए का हो जाएगा। उसके बाद कोई ताकत रुपए को और गिरने से नहीं रोक सकती। वैश्विक मंदी शुरू होने वाली है। सो, भारत का निर्यात नहीं बढ़ेगा। न ही शेयर बाजार में विदेशी निवेशक याकि एफआईआई और एनआरआई भारत में डॉलर लगाने वाले हैं। भारत की करेंसी और शेयर बाजार को आगे जो धक्के लगेंगे और केंद्र-राज्य सरकारों के बढ़ते बजट घाटे, बेइंतहां महंगाई आदि से आगे वे स्थितियां बन सकती हैं, जिससे अपने आप अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के लिए भारत को जंक घोषित करना अनिवार्य हो जाएगा। यों मोदी सरकार की लगातार प्राथमिकता रही है कि दुनिया और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को पटाएं, दुनिया भारत में अच्छे दिन माने रहें लेकिन वैश्विक हालातों से अब अपने आप भारत अब जोखिमपूर्ण बन रहा है।

गंभीर बात दुनिया मंदी की और बढ़ते हुए है। रूस बनाम यूक्रेन का पंगा चलता रहना है। राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनफिंग के गठजोड़ के खिलाफ अमेरिका-यूरोप कमर कस चुके हैं। इसलिए पश्चिमी देशों की वित्तीय-आर्थिक ताकत नई प्राथमिकताएं बनाते हुए है। इसलिए भारत में न डॉलर आने हैं और न भारत का निर्यात बढऩा है। मोदी सरकार ने रुपए और शेयर बाजार को ऊंचा उठाए रखने के लिए रिजर्व बैंक और एलआईसी जैसी घरेलू वित्तीय संस्थाओं, म्युचुअल फंडों को जैसे दांव पर लगाया है उसके दुष्परिणाम आगे देखने को मिलेंगे। भारत के छोटे-मध्य वर्ग के लोगों ने शेयर बाजार के झांसे में अपनी बचत को जितना बरबाद किया है उससे देश के भीतर अपने आप मंदी पसरती हुई होगी।

सवाल है सरकार पेट्रोलियम पदार्थों जैसी जरूरी चीजों के आयात के लिए डॉलर का कितना रिजर्व बनाएं रख सकती है? जवाब है कि इसका जरिया क्या है? रिजर्व बैंक अब रुपए को ऊंचा रखने के लिए डॉलर खर्च कर रहा है। रिजर्व बैंक ने फरवरी के बाद से कोई चालीस अरब डॉलर बाजार में निकाल जाया किए। यह सिलसिला कितने महीने या साल-दो साल क्या चलाए रखा जा सकता है? नहीं। इसलिए क्योंकि पहली बात अगले छह से नौ महीनों के भीतर भारत को डॉलर करेंसी में लिए हुए 267 अरब डॉलर के अल्पकालिक कर्ज डॉलर में चुकाने हैं। इसका अर्थ है अगले वित्तीय वर्ष अप्रैल 2023 के शुरू होने तक विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घटता हुआ होगा। पिछले साल सितंबर में यह 642 अरब डॉलर था। वह इस एक जुलाई को कोई 588 अरब डॉलर है। मतलब नौ महीनों में 54 अरब डॉलर की कमी! विदेशी निवेशकों के पैसे निकालने, रुपए को ऊंचा बनाए रखने और घटते निर्यात के कारण डॉलर रिजर्व घट रहा है। उधर पेट्रोलियम पदार्थों के महंगे आयात से भी विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव है।

सरकार ने पिछले दिनों प्राइवेट कंपनियों की डॉलर में कर्ज लेने की सीमा को बढ़ा कर डेढ़ अरब डॉलर किया तो भारतीय बैंकों को अनिवासी भारतीयों से विदेशी करेंसी लिवाने के लिए ब्याज दर नीति में लचीलेपन की छूट दी। मगर इनसे कुछ नहीं होना है। श्रीलंका का पड़ोसी है भारत। विदेशी अमीर निवेशकों और वित्तीय संस्थाओं के लिए पूरा दक्षिण एशिया जोखिम का इलाका है। सबसे बड़ी बात की जिन एफआईआई व अमीर वित्तीय संस्थाओं को मुनाफा, कमाई के लिए भारत ठिकाना था वे सब अमेरिका में ही पैसा जमा कर सुरक्षित मुनाफा कमाने की आदर्श स्थिति पाए हुए हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बाडडेन हों या यूरोपीय संघ के नेता और जापान, ऑस्ट्रेलिया, आसियान और चीन सभी की प्राथमिकता पहले अपने आपको संभालने की हो गई है। चीन और रूस से पंगे वाले पश्चिमी देशों के नेताओं का वह पुराना ख्याल खत्म प्राय है कि चीन के मुकाबले भारत की आर्थिकी को खड़ा किया जाए। चीन व रूस से पश्चिम की खुन्नस का भारत को फायदा नहीं होगा, बल्कि नुकसान अधिक होना है। और तो और इतना भी संभव नहीं है कि कोविड संकट के कम होने के बाद विदेशी पर्यटक भारत घूमने आए।

पता नहीं मोदी सरकार में आर्थिकी की मौजूदा दशा में विदेशी करेंसी के जुगाड़ के सिनेरियो को लेकर क्या-कुछ सोचा जा रहा है? अपना मानना है कि सरकार की प्राथमिकता बजट घाटे और अपने खर्चों की है। वह जनता से ही पैसा वसूल कर खर्च का जुगाड़ कर रही है। लेकिन डॉलर कैसे आएंगे? कह सकते हैं श्रीलंका के लोगों पर जैसे महंगाई और जरूरी सामानों की कमी (आयात न होने के कारण) की दोहरी मार पड़ी तो वैसा ही भंवर भारत में न बने, यह संभव नहीं है।

सम्बंधित खबरें
- Advertisment -spot_imgspot_img

ताजा खबरें