Tuesday, April 16, 2024
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खत्म राजनीति, अराजक अग्निपथ

हरिशंकर व्यास
भारत राजनीति की बजाय अब अग्निपथ पर है। तभी बिहार में भाजपा कार्यालयों, नेताओं के घरों पर हमलों की घटनाओं की अनदेखी है। सोचे ऐसी घटनाएं पहले कब हुई?  क्या कांग्रेस के दफ्तर कभी ऐसे निशाना बने? भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। छप्पन इंची छाती वाली पार्टी है। मगर नूपुर शर्मा मामला हो या अग्निपथ आंदोलन या उससे पहले किसान आंदोलन में, क्या भाजपा का वह रोल कही दिखा जिससे उसका राजनैतिक वजूद जाहिर हो।  संघ परिवार के पास किसान संगठन से लेकर अल्पसंख्यक संगठन, नौजवान संगठन सब है मगर सब मानों बेजान और बेमतलब। बिहार का मामला इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि वहा भाजपा का सत्ता में साझा है। बावजूद इसके भाजपा पर हो रहे हमलों पर साझेदार पार्टी जदयू के नेताओं में भी न कोई बोला और न किसी की सहानुभूति दिखी! लगा मानों अग्निवीरों के भाजपा पर हमलों से सभी खुश!

पहली बात भला क्यों अग्निवीर नौजवान केंद्र सरकार की योजना पर भाजपा के खिलाफ गुस्सा निकालते हुए? वे भाजपा से गुस्सा है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर या केंद्र सरकार पर? किससे उनका मोहभंग है। वे किस पर गुस्साएं हुए है?
दूसरी बात भाजपा खुद क्यों नहीं अपने लोगों, अपने कार्यालयों पर हमलों को गंभीरता से लेते हुए है?  बिहार में वह भी सरकार है। नीतिश कुमार की सत्ता भाजपा के कारण है। तब कैसे ऐसा कि भाजपा नेताओं को बचाने के लिए न नीतिश कुमार सक्रिय हुए और न भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने वैसे तेंवर दिखाए जैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा नेताओं की पिटाई के बाद दिखते है। परसों बिहार भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल ने जरूर यह कहा कि प्रशासन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहा है। सब कुछ प्रशासन के सामने हो रहा है, लेकिन वह मूकदर्शक है। प्रशासन की मौजूदगी में युवा बीजेपी दफ्तरों को निशाना बना रहे हैं। बीते तीन दिनों में प्रशासन की जो भूमिका रही है वो कहीं से भी स्वीकार्य नहीं है। इस पर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने पलट कर कहा कि भाजपा अपने शासन वाले राज्यों में प्रदर्शनकारियों को गोली से उड़वा दे। बीजेपी को चाहिए था कि वो युवाओं के मन की आशंका को दूर करे। ललन सिंह ने कहा- नीतीश कुमार जी प्रशासन चलाने में सक्षम हैं। और देश में गुड गवर्नेंस का उनको पुरस्कार मिल चुका है। इसलिए संजय जायसवाल जी से शिक्षा लेने की जरूरत नहीं है। उन्होंने जायसवाल के मानसिक संतुलन बिगडऩे की बात भी कही।

जाहिर है बिहार में जो दिखा है वह इस बात का प्रमाण है कि भाजपा अपने आपको कितना ही महाबली माने, उसके सत्ता साझेदारों में भी उसका अर्थ नहीं बचा है! राजनीति के पुराने कायदे खत्म। ध्यान रहे कि केंद्र की सरकार में जदयू भी भागीदार है। सरकार का फैसला पूरे सत्तारूढ गठबंधन का निर्णय है। तब नीतिश कुमार और उनकी सरकार को क्यों नहीं अग्निपथ योजना को लेकर नौजवानों को समझाना था?
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्या जदयू या साथी दलों, साथी मंत्रियों को विश्वास में लेकर घोषणा की? इसलिए जैसे मोदी सरकार के बाकि मामलों में सहयोगी दलों की बेरूखी, नाराजगी रही वैसा ही मामला अग्निपथ का है। नोटबंदी से लेकर अग्निपथ तक का लब्बोलुआब है कि सरकार की तमाम घोषणाएं बिना राजनैतिक इनपुट, सलाह और विश्वास के रही है तो किसानों-मुसलमानों-नौजवानों-जनता के योजना विरोधों-आंदोलनों में भाजपा, उसकी सहयोगी पार्टियों से लेकर पक्ष-विपक्ष सब बेमतलब।

तभी खत्म वह वक्त जब राजनीति थी और पार्टिया, पक्ष-विपक्ष और लोकतंत्र की धुरी थी। पार्टियां ही आंदोलन करती थी तो उनकी सर्वदलीय बैठकों व सियासी समझबूझ से समाधान भी निकलते थे।
अब सबकुछ अग्निपथ से है। आमने-सामने की लड़ाई से है। भारत या तो सत्ता की रेवडियों से या बुलडोजरों से चलता हुआ है। इसलिए न राजनीति की जरूरत है और न पार्टियों की। सबकुछ क्योंकि सत्ता केंद्रीत है तो प्रदेश और केंद्र के हर स्तर पर सत्ता से ही क्षेत्रिय और राष्ट्रीय दलों का अराजनैतिक व्यवहार है। इसलिए यदि बिहार में नीतिश कुमार और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सत्ता है तो इनके आगे भाजपा की नियति दो कौडी की है। पश्चिम बंगाल में भाजपाईयों की खूब ठुकाई है मगर बतौर पार्टी भाजपा में आंदोलन खड़ा करने का दम नहीं है। गैर-भाजपाई हर राज्य याकि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र आदि सभी राज्यों में भाजपा को राष्ट्रीय सत्तारूढ़ पार्टी या विपक्षी दल होने जैसा मान-सम्मान प्राप्त नहीं है। यह गलतफहमी नहीं रखें कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सत्ता के कारण इन राज्यों में भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं के प्रति कोई सियासी सद्भाव, व्यवहार होता होगा। इसका ताजा प्रमाण बिहार है। भाजपाईयों पर नौजवानों के गुस्से से कोई व्यथित नहीं है।

जाहिर है राजनैतिक संस्कृतिविहीन मौजूदा वक्त अराजकता को धीरे-धीरे न्यौत रहा हौ। राजनीति और राजनैतिक पार्टियों के वजूद का खत्म होना भविष्य में बेलगाम आंदोलनों की गारंटी है। सत्ता के बुलडोजरों से असंतोष, गुस्सा और नफरत पर तात्कालिक नियंत्रण भले हो जाए लेकिन लावा खदबदाता और बढता जाना है। कोई माने या न माने लेकिन बिहार की 16 करोड आबादी के 65 प्रतिशत नौजवानों की बेरोजगारी या पूरे देश के नौजवानों की बेरोजगारी पर अग्निपथ योजना ने जले पर घी का जो भभका बनाया है। यह और भभकते जाना है क्योंकि समाधान होना नहीं है। तो कितने ही प्रपंच और भटकाने वाली बाते हो अतंत: जब नौजवान गुस्सा देशव्यापी कभी फूटेगा तो सत्ता के सभी बुलडोजर भाग खड़े होने है।

और सर्वाधिक गाज भाजपा और संघ परिवार पर गिरेगी।भक्त हिंदू वोटों से नरेंद्र मोदी के बनाए जा रहे बुलडोजरों के मालिकाना अधिकार में कोई स्थायित्व नहीं है। हाल के बंगाल और बिहार के अनुभव में भाजपाईयों पर लोगों का जैसा गुस्सा फूटा है उसमें साजिश, नीतिश-ममता की मंशा पर चाहे जो सोचे बुनियादी बात है कि लोग खूंखार हमलावर हो रहे है। भाजपा और संघ परिवार को जिम्मेवार मान रहे है।  जनता दल यू और नीतिश कुमार तथा इससे पहले शिव सेना से भी भाजपाईयों को समझ आना चाहिए कि मन ही मन उन सबमें संघ परिवार के खिलाफ नफरत गहरी पैठती हुई है जो भक्त श्रेणी के नहीं है। भारत की नई-पुरानी सभी राजनैतिक पार्टियों, जमातों और अल्पंख्यकों, वर्ग-वर्ण के वंचित समूह अभी भले हिंदू राजनीति की काट निकालने में फेल होते हुए है लेकिन हताशा और नफरत में जब भी कोई मनमाफिक चिंगारी बनी तो ये भी वैसे ही अग्निवीर होंगे जैसे अभी बिहार में है।

राजनीति का खत्म होना बहुत घातक है। पार्टियों का मरना और सत्ता के आगे समर्पण होना विकल्पों का खत्म होना होता है। राजनीति संभावनाओं का खेल है तो विरोध, नफरत, गुस्से और आंदोलन आदि सभी तरह की चुनौतियों को वे अपने में समेट सकती है। सोचे, यदि भाजपा-जदयू पहले की तरह ही सच्चे मन के, सियासी उर्जाओं में साझेदार होते तो बिहार में क्या आंदोलनकारियों के आगे जदयू और भाजपा वैसे अलग-अलग तथा अप्रभावी दिखाई देते जैसे चार दिनों से दिख रहे है? सत्ता के बावजूद वहां क्या है भाजपा की राजनीति? मीडिया के प्रायोजित नैरेटिव और बयानबाजी से राजनीति नहीं होती! भारत में आज कितने राजनीतिबाज आंदोलनों के बीच राजनीति करने की हिम्मत लिए हुए है? या इतना भी कहने की हिम्मत रखते है कि किसी राजनैतिक दल के दफ्तरों और नेताओं के घर उपद्रवियों का उपद्रव ठिक बात नहीं है? क्या ऐसी भर्त्सना कहीं सुनाई दी?

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