अजीत द्विवेदी
अगर किसी को नरेंद्र मोदी और भाजपा का विकल्प बनना है तो राजनीति के मौजूदा टेम्पलेट्स में से एक चुनने या स्टीरियाटाइप में बंधे रहने की बजाय कुछ नया सोचना होगा। नई विचारधारा, जो लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और इंसानी गरिमा के अनरूप हो उसकी रूप-रेखा तैयार करनी होगी और शासन का वैकल्पिक स्वरूप भी बना कर उसे लागू करने की वैज्ञानिक विधियों के साथ जनता के सामने रखना होगा।
नरेंद्र मोदी का विकल्प कौन होगा? यह ऐसा प्रश्न है, जिसके कई जवाब हैं। एक जवाब तो हर पार्टी के हिसाब से है। हर पार्टी अपने नेता को प्रधानमंत्री मैटेरियल मान रही है और उसे ही राष्ट्रीय विकल्प बता रही है। दूसरा जवाब राज्यों में होने वाले हर चुनाव के बाद मिलता है, जो अलग अलग होता है। तीसरा जवाब सोशल मीडिया के महारथियों के पास है, जो नेताओं से लेकर अराजनीतिक नामों की चर्चा करते रहते हैं। जाहिर है विकल्प बनने की बेचैनी बहुत से नेताओं, अर्थशास्त्रियों और चुनाव रणनीतिकारों में है लेकिन इस बेचैनी से क्या हासिल होगा? क्या इनमें से कोई भी विकल्प बनने की जरूरी अर्हता को पूरा करता है? या क्या उसके पास कोई वैकल्पिक विचार है? क्या बिना वैकल्पिक विचार के कोई व्यक्ति नरेंद्र मोदी और भाजपा का विकल्प बन सकता है?
विकल्प बनने के लिए दो चीजें सबसे अहम हैं। पहली चीज है विचारधारा और दूसरी चीज है शासन का वैकल्पिक मॉडल। विचारधारा और शासन के मॉडल पर ही नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार की इमारत खड़ी की है। विचार उनका नहीं, बल्कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का है, जिसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने और उन्हें उस विचार से बांधे रखने के नए नए तरीके वे जरूर खोजते रहते हैं। शासन का मॉडल भी उनका नहीं है, लेकिन उन्होंने इसे ज्यादा कारगर बनाया है। उन्होंने मतदाताओं के सबसे बड़े वर्ग को पहचाना और उसे स्थायी वोट बैंक में तब्दील किया। वह सबसे बड़ा वोट बैंक गरीब का है, जो कभी कांग्रेस के साथ था। तभी कांग्रेस गरीबी हटाओ का नारा देती थी और कांग्रेस की सरकार गरीबों के लिए माई-बाप सरकार होती थी। गवर्नेंस के इसी मॉडल को भाजपा की मौजूदा सरकार ने अपने हिसाब से लागू किया है। फर्क इतना है कि कांग्रेस की सरकार गरीबी हटा नहीं पाई तो उसने गरीबी बढ़ाई भी नहीं। भाजपा ने गरीबी बढ़ा कर गरीबों को स्थायी वोट बैंक में तब्दील किया है। जितने ज्यादा गरीब होंगे, जितने ज्यादा लोग सरकारी राहत व मदद पर आश्रित होंगे, उतने ज्यादा वोट होंगे।
तभी गरीब की जगह एक लाभार्थी का वोट बैंक खड़ा हुआ है। यह लाभार्थी मतदाता वर्ग, जिसे नमकहलाल मतदाता भी कह सकते हैं, पूरी तरह भाजपा और खास कर नरेंद्र मोदी के साथ खड़ा होता है। ध्यान रहे पिछले कई चुनावों में जहां भी भाजपा अकेले लड़ी है और एक बड़ी ताकत है वहां उसे 40 फीसदी के आसपास वोट मिलते हैं। यह वोट का बहुत बड़ा आंकड़ा होता है। इससे पहले बहुत कम पार्टियां थीं, जिन्हें निरंतर 40 फीसदी वोट मिलते हों। इस 40 फीसदी वोट में आधा यानी करीब 20 फीसदी वोट लाभार्थियों का होता है और बाकी 20 फीसदी वोट विचारधारा का है, जो नरेंद्र मोदी के नहीं रहने पर भी भाजपा को मिलता था। जब तक कोई पार्टी इसके बरक्स कोई दूसरी मजबूत विचारधारा लेकर नहीं आती है और मोदी मॉडल ऑफ गवर्नेंस के समानांतर कोई दूसरा आकर्षक मॉडल नहीं लाती है, तब तक विकल्प बनने की बेचैनी से कुछ हासिल नहीं होने वाला है।
मौजूदा समय में किसी पार्टी के पास कोई नई व आकर्षक विचारधारा नहीं दिख रही है और न गवर्नेंस का कोई ऐसा मॉडल है, जो अखिल भारतीय स्तर पर मोदी मॉडल के सामने चुनौती बन सके। तभी भाजपा के विरोधी हर चुनाव के बाद एक नया मसीहा देखने लगते हैं और उसमें विकल्प तलाशने लगते हैं। जैसे पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद अरविंद केजरीवाल में वह संभावना देखी जा रही है। पंजाब में उनकी पार्टी को मिली भारी भरकम जीत के बाद उनको राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के लिए चुनौती के तौर पर देखा जा रहा है और उनकी पार्टी केजरीवाल मॉडल को देश का मॉडल बनाने की बात कर रही है। पर क्या सचमुच केजरीवाल के पास जो विचार और शासन का मॉडल है वह मौलिक है और उनका अपना है? ऐसा नहीं है! उनके विचार और शासन का मॉडल दोनों क्लोन किए हुए हैं। वे हिंदुत्व के विचार की राजनीति करते हैं और जनता को शासन पर आश्रित बनाने के मॉडल पर सरकार चलाते हैं। यहीं तो भाजपा का मॉडल है। जनता को आत्मनिर्भर बनाने, उसके लिए अवसर उपलब्ध कराने और गरिमा के साथ अपना जीवन चलाने वाला शासन देने का मॉडल उनका भी नहीं है। भाजपा के मॉडल में वे सिर्फ इतना बदलाव करते हैं कि उसमें स्कूल और अस्पताल जोड़ देते हैं। यह विकल्प नहीं है, बल्कि मौजूदा शासन व्यवस्था का एक्सटेंशन है।
सो, जाहिर है कि अरविंद केजरीवाल कोई विकल्प नहीं हैं, बल्कि उसी धारा के राजनेता हैं, जो समय के साथ बहते हुए कुछ राज्यों में सत्ता में आते रहेंगे और हो सकता है कि कभी केंद्र की सत्ता में भी आ जाएं। लेकिन उनकी राजनीति विकल्प बनने वाली नहीं है। इसी तरह पिछले साल के चुनावों में जीत के बाद ममता बनर्जी को विकल्प बताया जा रहा था या उससे कई साल पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में नरेंद्र मोदी का विकल्प देखा जा रहा था। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को स्वाभाविक विकल्प मानते रहे हैं तो शरद पवार से लेकर चंद्रशेखर राव तक कई अन्य क्षत्रप भी अपने को विकल्प के तौर पर देख रहे हैं। इनमें से सबके पास विकल्प बनने की बेचैनी तो है लेकिन सलाहियत किसी के पास नहीं है।
कांग्रेस और राहुल गांधी को विकल्प मानने वाला कोई व्यक्ति बता सकता है कि पंजाब में कांग्रेस का राज था तो उसने क्या वैकल्पिक विचार या शासन का मॉडल खड़ा किया? सोचें, पांच राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें चार राज्यों में प्रो इन्कम्बैंसी वोट हुआ और सिर्फ पंजाब में एंटी इन्कम्बैंसी की लहर चली! चार राज्यों में भाजपा का शासन था और अपनी वोट हिस्सेदारी बढ़ाते हुए उसने चारों राज्यों में जीत हासिल की। इसके उलट कांग्रेस पंजाब में साफ हो गई। चार राज्यों में भाजपा की जीत का एक संकेत यह है कि लोगों को सत्तारूढ़ दल को वापस चुनने में संकोच नहीं है। फिर कांग्रेस क्यों नहीं ऐसा कोई मॉडल बना पाई कि उसकी सरकार भी दोबारा चुनी जाए? और अगर राज्यों में वह कोई ऐसा मॉडल नहीं तैयार कर पाई तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा से मुकाबले का वैकल्पिक मॉडल कैसे तैयार करेगी? सो, अगर किसी को नरेंद्र मोदी और भाजपा का विकल्प बनना है तो राजनीति के मौजूदा टेम्पलेट्स में से एक चुनने या स्टीरियाटाइप में बंधे रहने की बजाय कुछ नया सोचना होगा। नई विचारधारा, जो लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और इंसानी गरिमा के अनरूप हो उसकी रूप-रेखा तैयार करनी होगी और शासन का वैकल्पिक स्वरूप भी बना कर उसे लागू करने की वैज्ञानिक विधियों के साथ जनता के सामने रखना होगा।